SirLarth – Kitni Gulaami? (Lyrics Video)| Hindi Rap



This is a social commentary on mayhem that is or was created by the various bad political and religious people in the name of religion(specially).
Rest is in song.

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Hindi Lyrics:

(आयत 1)

क्यों मन पल पल मंथन करता
और अम्बर बस गर्जन करता
जब जब धरती खून की प्यासी
क्यों चुप चुप था सृजनकर्ता
सब इंसा पर निर्भर था,

अंदर सबके समंदर बस भूतल थर – थर का अंतर था
चौतरफा मंजर हिंसा का स्वतंत्रता का दिन था
जिंदा मन चिंता का घर था
वो खुद तुझसे निर्भय फिर
भय क्यों मुझपे निरन्तर था

ओह! जलस्तर गर्दन पर था,
ओह! जलमग्न हर बंदरगाह,
जो देखा अंतर्मन में क्या
ये वो जनतंत्र था?
दो नौ दुर्गे अपवाद हैं
हम सौ मुर्गे कटवा दें गर
हलाला बटवां दें क्या मैक डॉनल्ड “झटका” देगा?

मिट्टी का तेल लिए मुंह में
करनी का लड़का देखा?
अग्नि खुद के संवाद हों जिसके
नेता क्या भड़काते?

(हुक)

बड़े नफ़रत के घड़े, श्वेत सल्तनत ना लानी पड़े
खून का हर कतरा बचाने को जिल्लत उठानी पड़े
खुदा भी बांटे कर बातें,
बातें भूलानी पड़े
एक एकत्रता समझने को कितनी गुलामी पढ़ें।।

ना ही विस्तृत ये जड़ें ना ही फितरत ही गड़बड़ है
क्यों लट से उलझे फिर रिश्ते नित सुबह सुलझाने पड़े
खुदा भी बांटे गर बातें कर,
बातें भूलानी पड़े
एक एकत्रता बचाने को कितने कुर्बानी चढ़ें।।

(आयत 2)

तो ना लिखो….क्यों ना बांध को कलाई?
ताकि खोल दूं जो गला तो ये बंदूक लाएं
यहां तंज भी कसो सरपंच बुलाएं
पर भड़कीला भाषण हो मंच खुला है

मनोरोगी जो लोग इन्हें संत बुलाएं
लगता है भेजे का पेंच खुला है
गुल गुप्त गुफा में अद्भुत खिलाएं
शायद आपके लिए भी जले पंचकूला

आस्था की केतली में वासना की चाय भर
न्याय ना हो चाहे आंच न हो आय पर
अलमगीरी गज़वे की गाज गिरी गाय पर
अब टिकी दुनिया की नजर इसी व्यवसाय पर

भेड़ियों की भीड़ भिड़ी भेड़ से चौराहे पर
चिढ़े पिछड़ों ने मीडिया पर खिचड़ी चढ़ाई
जो कि हमने भी खाई…थी एक अरबों की राय पर
इंडिया में मीडिया के घर भी किराए पर, सब मौका परस्त हैं

व्यक्ति भी फर्जी की खबरों में मस्त हैं
सब आश्वस्त हैं
इतने कि गर्त में अर्थव्यवस्था ये तर्क भी व्यर्थ है।
क्यों?
क्योंकि
मैंने यहां कल की पीढ़ी का भी कल बिकता देखा,
और फिर ये नेता ओला – उबर कर लटकाते।

(हुक)

बड़े नफ़रत के घड़े, श्वेत सल्तनत ना लानी पड़े
खून का हर कतरा बचाने को जिल्लत उठानी पड़े
खुदा भी बांटे कर बातें,
बातें भूलानी पड़े
एक एकत्रता समझाने को कितनी गुलामी पढ़ें।।

ना ही विस्तृत ये जड़ें ना ही फितरत ही गड़बड़ है
क्यों लट से उलझे फिर रिश्ते नित सुबह सुलझाने पड़े
खुदा भी बांटे गर बातें कर,
बातें भूलानी पड़े
एक एकत्रता बचाने को कितने कुर्बानी चढ़ें।।

(आयत 3)

जगी ज्योति भी कोसे दिमागों में
भानु के आगे चिराग हूं मैं
चीर के थान को हाथ से लोग ये पूछते गांठ क्यों धागों में
द्वेष रवां है निगाहों में
प्रेम क्यों ना हो नकाबों में
महल मिसाल हैं इश्क़ के आशिक़ आज भी कुट ते हैं बागों में

तेरे बाघों का मन उन्मादों में, ज़हनी तौर पे कैद हैं जो मांदो में
खून ऐसे बेहने लगा उन हाथों से
जैसे खुद तूने लिखा हो किताबों में
दिल छूने का वादा जिन बातों से आज उन्हीं बातों का नाता विवादों से
मिट्टी के पुतले जो खड़े किए तूने वो चूने लगें जरा सी बरसातों से

हां तो उसी कीच के लगते
भद्दे बड़े दिल्ली पे धब्बे
अक्सर यहां पटरी पे चलते
जलते हुए रेलों के डब्बे
सबके तेरा नाम भी लब पे
मसलन सन उन्नीस सौ नब्बे
जब जन्नत नरक बनाकर
जन्नत की खोज में कुत्ते
हक को जो हैं लोग इकट्ठे, इन्हें लगते हैं सड़कों के गड्ढे
दस हज़ार होठों पे भारी, दस हाथों में ईंटों के अद्धे
इन अद्धों की कोख में पलते हैं कितनों की राजनीति के मुद्दे
सुन लो हालात इधर के तो फट जाएं तश्रीफों के गद्दे

(हुक)
बड़े नफ़रत के घड़े, श्वेत सल्तनत ना लानी पड़े
खून का हर कतरा बचाने को जिल्लत उठानी पड़े
खुदा भी बांटे कर बातें,
बातें भूलानी पड़े
एक एकत्रता समझाने को कितनी गुलामी पढ़ें।।

ना ही विस्तृत ये जड़ें ना ही फितरत ही गड़बड़ है
क्यों लट से उलझे फिर रिश्ते नित सुबह सुलझाने पड़े
खुदा भी बांटे गर बातें कर,
बातें भूलानी पड़े
एक एकत्रता बचाने को कितने कुर्बानी चढ़ें।।

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